दूश्मन खुदा


थक कर बैठता हुँ जब भी सुस्ताने को जिन्दगी की इन काली अँधेरी रातो मे हर बार गम का सूरज निकल आता है
हमसफर की तलाश में जूड़ता हुँ जब भी किसी कारवाँ में कमबख्त हर बार मेरा रास्ता बदल जाता है
कितना बदनसीब हुँ मै कि तलाश मे खुशियों कि जब भी निकलता हुँ बर्बादीयों का मौसम बरस जाता है
क्या शिकायत करू किस्मत से या किसी और से, मुझे तो अब खुदा भी मेरा दुश्मन नजर आता है

निखिल दाधीच

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निखिल दाधीच